Sunday, June 9, 2013

कारवां के साथ रहकर मैं अकेला ही रहा.....


कारवां के साथ रहकर मैं अकेला ही रहा

थक रहे है पाँव लेकिन मन थका लगता नही.
आ रही है सांझ लेकिन पथ चूका लगता नहीं.

कारवां के साथ रहकर मैं अकेला ही रहा ,
ठौर तो मिलते रहे पर घर मिला लगता नहीं.

बीज थे संकल्प के वट-वृक्ष बनने के लिए.
रीढ़ में थी ग्रंथियां यह तन तना लगता नहीं.

बोझ थी यह जिंदगी कुछ बोझ औरों का रहा,
झुक रही सीधी कमर पर सिर झुका लगता नहीं.

प्रश्न चिन्हों में उलझकर रह गए उत्तर सभी,
है यथावत आज भी यह भ्रम मिटा लगता नहीं.

बूँद थे हम बूँद बनकर हर पहर रिसते रहे ,
पूर्ण कब थे कब घटे यह घट भरा लगता नहीं.

बज रहीं शहनाइयां इस मातमी माहौल में
त्रासदी युग की विकट यह स्वर बुरा लगता नहीं।

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